जीवन का सफर | Journey of life
मैं अपनी ही बात करता हूं, कभी बैठ कर एकांत में सोचता हूं, मात्र 15-20 मिनट में ही पूरा जीवन की मुख्य मुख्य घटनाएं आंखों के सामने एक पिक्चर की तरह ही घूम जाती है। वह दिन भी क्या दिन थे जब हम छोटे-छोटे बच्चे हुआ करते थे।
क्या मस्तियां थी?
क्या जीवन में उल्लास था?
पल पल बच्चों से झगड़ना और कुछ पल के बाद ही सब कुछ भूल कर फिर वही ठहाके तथा शरारते।
जब स्कूल में पढ़ाई के लिए दाखिला हुआ | Jab vidyalay mein padhaai ke liye hua admission
कुछ बड़े हुए तो पिताजी ने स्कूल में पढ़ने के लिए एडमिशन करवा दिया। वह भी क्या दिन थे जब तख्तियां लेकर स्कूल में जाया करते थे तथा सलेटी या चाक द्वारा तख्ती पर लिखते थे।आजकल की नई पीड़ी तो तख्ती के बारे में जानती भी नही है
कुछ बड़े हुए तो फिर हाथों में कलम आ गई। क्या दिन थे, हर टीचर की जेब में एक चाकू भी हुआ करता था। उस समय के अध्यापक पढ़ाई के साथ साथ कलम बनाने में भी पूरे एक्सपर्ट हुआ करते थे। कुछ वर्ष कलम से लिखने के बाद हाथों में इंक वाला पेन आया, पेन पाकर हम फूले नहीं समाए, ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे हमारा प्रमोशन हो गया हो।
क्या वह दिन थे हमारे साथ पढ़ने वाले बच्चे, लड़कपन में खेलने वाले बच्चे ना जाने अब कहां चले गए। सब लोग बड़े होकर अपने अपने जीवन में पापी पेट को भरने के लिए तथा परिवार की जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए सभी लोग साथी बिछड़ गए।
आज वह जमाना याद कर आंखों में आंसू आ जाते हैं तथा यह गाना बरबस ही याद आ जाता है जिंदगी के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को।
किशोरावस्था से जवानी का आगाज
थोड़ेेेे बड़े हुए तो हाथोंं मेंं इंक पेन की जगह बॉल पेन आ गया। कॉलेज की मस्तियां तथा जवानी का आगाज,
आहा क्या वक्त था?
क्या दौर था?
क्या जोश था?
क्या सपने थे?
ऐसा महसूस होता था की कर लो दुनिया मुट्ठी में । कॉलेज की पढ़ाई केेे बाद जब जिंदगी की हकीकत से वास्ता पड़ा तथा परिवार की जिम्मेदारियां गले पड़ गई तथा हंसतेे रोते हुए उन्हें निभाना पड़़ गया, तो ऐसा महसूस हुआ कि मानो जीवन के सतरंगी सपने स्वाहा हो गए हैंं। जीवन की सारी उमंग कहीं गुम हो गई।
वैवाहिक जीवन की शुरुआत
एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण सामाजिक प्रथा यानी की विवाह के बंधन में बांधे गए। यह प्रथा भी एक ऐसी प्रथा हैै जोकि व्यक्ति को कई बार ना चाहते हुए भी परिवार के तथा समाज के दबाव में आकर सभी को स्वीकार करनी पड़ती हैं।
जब शादी हो गई तो जाहिर सी बात है की ईश्वर की कृपा से घर में बालक भी हुए। धीरे-धीरे बड़े हो रहे हैं, बच्चों को देखकर कहीं ना कहीं इंसान को अपना बचपन फिर से याद आ जाता है तथा इंसान कोशिश करता है की जो काम किसी वजह से वह अपने बचपन मैं नहीं कर पाया या जो मुकाम वह प्राप्त नहीं कर पाया, उसे उसके बच्चे प्राप्त करें। खाली दुनिया में पिता ही ऐसा प्राणी होता है जो दिल से चाहता है कि मेरे बच्चे मुझसे भी बहुत ज्यादा तरक्की करें तथा आसमानों की बुलंदियों को छुए, इसके लिए एक बाप अपना सर्वस्व अपने बच्चों पर न्योछावर कर देता है।
ढलती जवानी और बुढ़ापे का आगमन
बुढ़ापे का आगाज बढ़ती हुई उम्र के साथ आना शुरू हो जाता है। धीरे धीरे शरीर को बीमारियां घेरना शुरू कर देती है। एक मजबूत व्यक्तित्व धीरे धीरे कमजोर होना शुरू हो जाता है और कई बार हालात ऐसे भी आ जाते हैं कि व्यक्ति बीमारी के कारण चारपाई पर पड़ जाता है तथा उसकी वही संताने ईश्वर से उसको अपने पास बुलाने की प्रार्थनाएं करने लगती हैं। यह वही संतान होती हैं जिन्हें उसने ईश्वर से बड़े ही प्रार्थना करके प्राप्त क्या होता है।
दुनिया को अलविदा कह कर मृत्यु को प्राप्त होना
एक दिन वह इंसान इस दुनिया को अलविदा कहकर किसी दूसरी दुनिया में ही चला जाता है।
यही मानव चक्र है जहां पर हजारों लाखों लोग आपस में मिलते हैं, टकराते हैं, कुछ वक्त साथ चलते हैं और फिर अजनबी बन कर हमेशा हमेशा के लिए जुदा हो जाते हैं। और फिर यह बात सच महसूस होती है कि जिंदगी के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को और दे जाते हैं यादें कभी ना भूल जाने को।
Read More :-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें